सोमवार, 24 नवंबर 2008

कवि व्यथा !!!




(१)
देश स्वतंत्र है
कवि आज भी है
परतंत्र
कलम उसकी है बंधी
विवशताओं से घिरा
हो गया है लाचार
कलम के साथ-साथ
जकडा है मन
लिखता है वो
जो लिखवाते हैं
कहता है वो
जो कहलवाते हैं
यहाँ तक कि
सोचता भी वही है
जो लोग चाहते हैं
देख-देख सबकी दुर्दशा
चुप रहता है
ऊपरी ख़ुशी में जीता है
(२)
प्रेयशी के गाल
मुझे नहीं दिखते लाल
उसकी जुल्फें
न बादलों कि झलक देती हैं
न रातों कि
उसके बालों का पानी
याद नहीं दिलाता
मोतियों कि
उसकी कजरारी आँखें
हिरनी सी दिखती नहीं
उसके मुख को,मैंने दी नहीं
चाँद कि उपमा
मैं करता हूँ चेष्टा
पर उसकी वेणी
नागिन की समता
पा नहीं सकती
जब-जब देखता हूँ उसे
दिखती है मानवी ही
क्या मेरा कवि होना व्यर्थ है?
(३)
कवि होना
है एक अभिशाप
इनकी है अलग दुनिया
समाज से कटे
अपने-आप में सिमटे
रहते हैं ये
हर वास्तु को देहते हैं
इतने गौर से
कि थम जाती हैं
उनकी साँसें
लोग कहते हैं
ये दूर-दूर रहते हैं
और
ये कहते हैं
लोग पास नहीं आते
खैर, इसी मुगालते में
दोनों एक-दुसरे से कट जाते हैं!

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

सपना देखा








बच्चो के लिए लिखी यह कहानी मैंने बचपन में लिखी थी .यह कहानी मेरेलिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योकि यह मेरी पहली रचना है जो किसी पत्रिका में प्रकाशित हुई हो।


रविवार, 5 अक्तूबर 2008

गाँधी की बातें






२ अक्तूबर यानी गांधीजी का जन्मदिन आया और खामोशी से चला गया। न, न खामोशी शब्द पर आपत्ति की आवशयकता नही है क्योकि सरकारी छुट्टी , धरना, प्रदर्शन से खामोशी नही टूटती। इस खामोशी का मतलब है एक बार फ़िर गाँधी जी नकारे गए। उनके जन्मदिन पर कितने लोगों ने उनसे कुछ सिखा , कितनो ने उनके मूल्यों को अपनाया या अपनाने की ठानी। जवाब नकारात्मक है न। इस लिए मैंने कहा की सब कुछ खामोशी से हुआ। क्योकि परिस्थितिया बदल चुकी हैं ,और चुनौतियाँ भी , पर ये पहले से ज्यादा ख़राब हो गईं है। पहले( गाँधी जी के समय में ) हमारे पास मुख्यरूप से एक ही चुनौती थी, स्वाधीन कराना । बाकि यह विशवास था कि आजाद भारत में जब अपने लोगों का शासन होगा तो सारी बाधा पर तो विजय पा ही लेंगें ( ऐसा नही हुआ उसके कारण अलग थे ) आज कि स्थिति ये है कि हर क्षेत्र में अलग प्रकार कि चुनौतियाँ हैं । जब भी दिक्कत बढती है तो गाँधी याद आतें हैं , लगता है काश! उनके पदचिह्नों पर चले होते तो ऐसी मुश्किलें नही आती। यहाँ तक तो ठीक है पर जब देखतें हैं कि आज के युवा " मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी " जैसे जुमले उछालते हैं तो उनकी बुद्धि पर पर तरस आता है। आज भी ऐसे महानुभाव मिलते हैं जो ये कहतें हैं कि गाँधी के कारण ही तो देश विभाजित हुआ, या कहने वाले भी कम नही हैं कि गाँधी जी ने मुस्लिमो और हरिजनों को जरुरत से ज्यादा प्रश्रय दिया है। ऐसा कहने वाले ये भूल जातें है कि वे ख़ुद कितनी गन्दी मानसिकता के साथ रहतें हैं और उनका ये कथन हमारे देश के मूल्यों और सिद्धांतों के विपरीत हैं अस्तु अभी गांधीजी के जीवन की कुछ झलकियाँ -


































इनको देख कर अहसास तो बहुत कुछ हो सकता है पर तभी जब कोशिश की जाए । नई पीढी से यह उम्मीद है की एक बार गाँधी दर्शन को समझने कि कोशिश तो करे उसे भी मुन्ना भाई कि तरह देर से ही सही पर फायदा होगा , इसकी गारंटी है! तो आजमा कर देखतें हैं ...

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

खुशी


बिना कफ़न के

सड़क के किनारे पड़ी

लाश- मेरी है

चारो ओर बैठ कर

रोते बच्चे भी मेरे हैं

लोग मर कर रोते हैं

मुझे देखो

खुश हूँ मैं

बहुत खुश

इतनी जितना , जीते जी

कभी रही नही

न कभी भोजन मिला

न आवास

तन ढकने को कपडे

बमुश्किल मय्यसर होते थे

कभी पेट भर खिला न सकी

बच्चे मेरे दाने- दाने को

रहे तरसते

मैं तन बेचकर भी

बुझा न सकी पेट की ज्वाला

आज मुक्त हूँ मैं

गंदे शरीर से

पापी पेट से

बच्चों के बोझ से

किसी की फिकर नही

खुश हूँ मैं

बहुत खुश

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

इंतजार ...

ज़िन्दगी मुझे भी

लगने लगी है खुबसूरत

हर तरफ़ दिखता है

आफ़ताब ही आफ़ताब

आंखों में आ गई चपलता

गाल हो रहे सुर्ख

शायद बदल गई है चाल भी

यह उमस भरा दिन

लग रहा है प्यारा
मन में है उल्लास

जिस दिन का किय

वर्षों इन्तजार

कहीं यह वही तो नही

यह हवा लायी है

तुम्हारी खुशबू

या तुम

स्वयम आए हो

क्या ख़त्म होने लगेगा

इंतजार ...

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008















बिहार की बाढ़ ने हमें झकझोर कर रख दिया है। यूं तो बाढ़ हर साल वहां अपना रौद्र रूप दिखाती हैं। पर इस बार की स्तिथि ज्यादा ख़राब रही । देश भर में लोग इनके लिए चंदा इकठा कर रहें हैं।



सही बात यह है कि वहां पैसे के साथ- साथ कर्म करने वालो कि जरुरत है । पैसे से ख़रीदे सामानों को उन असहायों के पास पहुचने के लिए किसी कि जरुरत होती है । पैसे तो फ़िर भी कुछ न कुछ पहुँच ही जाते हैं । बाढ़ का पानी उतरने के बाद कि चुनौतियो के समय तो मानव के मदद कि जरुरत होती है ।


अपने ऑफिस की तरफ़ से इकठ्ठा होने वाले फंड के लिए आज चंदा मांगने मार्केट में गईकिसी भी काम के लिए चंदा महज का ये मेरा पहला मौका था । मेरी उम्मीद के बिपरीत लोगो ने हमें दुत्कार कर भगाया। एक अखबार का नाम जुरा था हमारे साथ हम चेक बुक भी साथ में लेकर चल रहें थें । फ़िर भी लोग हमें हिकारत से देख रहें थे। बड़े - बड़े शो रूम से जब दस बार कहने पर १० / का नोट निकल रहा था तो हमें बड़ा बुरा लग रहा था ।


पर बाद में कुछ ऐसे उदाहरन भी मिले जब यकीं हुआ कि नही ऐसे लोग भी हैं जो असहायों की मदद करना जानतें हैं। सड़क के किनारे चाय बेचने वाली एक ७५-८० साल कि अम्मा ने हमें बुला कर पैसे दिये। हम उनके आभारी हुआ बिना नही रह सकें .
लोगों में आ रही संवेदनहीनता का क्या किया जे नही मालूम .पर लोग पहल ख़ुद से नही करतें सोचतें हैं कोई और करेगा या कि में पहल्रे क्यों ? और लोग करें। अपनी ज़िम्मेदारी से बचने की आदत कब जायेगी

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

आज का मानव






शब्दहीन , संज्ञाहीन

और
संवेदनहीन
किसी को मरते देख
अपरिवर्तित रहती भावनाएं
किसी को दुखी देख

उर से खुशियाँ बरसती हैं
कोई रोये तो
अधरों पर मुस्कान तैरती हैं
कोई मदद को पुकारे
तो कान दे नही पाते
कहीं थोडी प्रशंसा मिली
तो पाँव ज़मीन छोड़ देते हैं
कोई चार पैसे दे दे
बस उसके तलुए सहलाते हैं
कभी कर्तव्य की बात हो
उन्हें तारे दिख जाते हैं
रिश्ते नाते के मामले में
बस रुपयों से मेल बढाते हैं
भगनी -दुहिता माता
सारे सम्बन्ध एक धागे में
पिरो दिए जाते हैं
नारी को बस नारी बनाते हैं
इस मानव का कभी
पुराने मानव से
मेल कराते हैं


तो छत्तीस का आकडा पातें हैं





गुरुवार, 28 अगस्त 2008

मधुबाला








नैसर्गिक सौन्दर्य , उम्दा अभिनय मधुबाला की यही पहचान है। कुछ अच्छी इमेज मिली उनकी तो आप सबों के लिए पोस्ट कर दिया .

सोमवार, 18 अगस्त 2008

ससुराल

भर आंखों में

रंगीले सपने

छोड़ के गुडिया

घर को अपने

पहन के जोड़ा सुहाग का

सजा कर माथे पर बिंदिया
लगा के आंखों में काजल

आ पहुँची ससुराल

बिलख रहे थे मम्मी - पापा

एक तरफ़ खड़ा था भइया

एक तरफ़ थी बहाना

तोड़ दिया उसने तो मोह पुरानी सखियों
का

मन में बज उठी तरंगें

ले रहा अरमान हिलोरें
रह - रह
मुस्काते हैं नैन

आई है पति के संग की रैन

पर हाय रे !

ससुराल की दुनिया ऐसी न्यारी है

अन्दर तो काँटोंकी फुलवारी

ऊपर से हरी क्यारी है

सासु की आंखों में ममता का है नाम नही

ननद तो जैसे वैरी जनम- जनम की

कितनी भी सेवा कर ले

शवसुरको तुष्टि तुष्टि नही

बिस्तर के सिवा पति को

उसकी पहचान नही

बाहर लोक लाज में बंधी

अन्दर की रिश्तों जंजीरों में
जाए कहाँ वह

पिता का घर भी बंद हुआ

घुट - घुट कर वह जी रही इस हाल में

लोग समझ बैठते

सुखी है ससुराल में



रविवार, 3 अगस्त 2008

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

चुप्पी का शोर

नदी निर्झर नाले
पर्वत धरा अम्बर निराले
खामोश सभी , सभी चुप हैं
उठती तरंगें , उठा हिलोर है
आती कहाँ से ये कहाँ इसका छोर है
गुमसुम है सब, सब खामोश है
हाँ , दबी- दबी सी चीख
दबा-दबा- सा शोर है
अशांत मन ,अशांत नज़र है
मन में उठा हिलोर
यह हाहाकार भी मन में मचा है
अवसाद जब भी गाढा हुआ है
चुप्पी का शोर मचने लगा है

वक्त की रफ़्तार

तेज़ी से सरकता समय
मुझे करता है व्यथित
मैं रोकना चाहती हूँ
इसकी रफ़्तार
जीना चाहती हूँ
हर पल को
महसूसना चाहती हूँ इसे
ये वक्त थम -थम कर गुजरे
ताकि बस जाए हर लम्हा
मेरी निगाहों में
हमेशा तेरे - मेरे ज़ज्बातों में
मेरी हर साँस रखे याद
गुज़रे कल को
हर व्यक्ति बन जाए
मेरे लिए खास

रविवार, 20 जुलाई 2008

रिश्ता

1
एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में

और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही

रिश्तों की भीड़ में
अकेला खड़ा में
ढूंढ़ रहा उसे

जो सच में
रिश्ता हो


रिश्तों की दुनिया से
चुराया मैंने
एक प्यारा सा रिश्ता

फूलने - फलने लगा यह
मेरे भीतर और

साथ - साथ
फुला -फला मैं भी
चढ़ता गया
उत्कर्ष की सीढियां
पर , जब ऊपर पहुँचा
जाने कब से
मेरे रिश्ते की बेल
सूखी मुरझाई
पैरों तले कुचली थी