मंगलवार, 23 सितंबर 2008

खुशी


बिना कफ़न के

सड़क के किनारे पड़ी

लाश- मेरी है

चारो ओर बैठ कर

रोते बच्चे भी मेरे हैं

लोग मर कर रोते हैं

मुझे देखो

खुश हूँ मैं

बहुत खुश

इतनी जितना , जीते जी

कभी रही नही

न कभी भोजन मिला

न आवास

तन ढकने को कपडे

बमुश्किल मय्यसर होते थे

कभी पेट भर खिला न सकी

बच्चे मेरे दाने- दाने को

रहे तरसते

मैं तन बेचकर भी

बुझा न सकी पेट की ज्वाला

आज मुक्त हूँ मैं

गंदे शरीर से

पापी पेट से

बच्चों के बोझ से

किसी की फिकर नही

खुश हूँ मैं

बहुत खुश

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

इंतजार ...

ज़िन्दगी मुझे भी

लगने लगी है खुबसूरत

हर तरफ़ दिखता है

आफ़ताब ही आफ़ताब

आंखों में आ गई चपलता

गाल हो रहे सुर्ख

शायद बदल गई है चाल भी

यह उमस भरा दिन

लग रहा है प्यारा
मन में है उल्लास

जिस दिन का किय

वर्षों इन्तजार

कहीं यह वही तो नही

यह हवा लायी है

तुम्हारी खुशबू

या तुम

स्वयम आए हो

क्या ख़त्म होने लगेगा

इंतजार ...

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008















बिहार की बाढ़ ने हमें झकझोर कर रख दिया है। यूं तो बाढ़ हर साल वहां अपना रौद्र रूप दिखाती हैं। पर इस बार की स्तिथि ज्यादा ख़राब रही । देश भर में लोग इनके लिए चंदा इकठा कर रहें हैं।



सही बात यह है कि वहां पैसे के साथ- साथ कर्म करने वालो कि जरुरत है । पैसे से ख़रीदे सामानों को उन असहायों के पास पहुचने के लिए किसी कि जरुरत होती है । पैसे तो फ़िर भी कुछ न कुछ पहुँच ही जाते हैं । बाढ़ का पानी उतरने के बाद कि चुनौतियो के समय तो मानव के मदद कि जरुरत होती है ।


अपने ऑफिस की तरफ़ से इकठ्ठा होने वाले फंड के लिए आज चंदा मांगने मार्केट में गईकिसी भी काम के लिए चंदा महज का ये मेरा पहला मौका था । मेरी उम्मीद के बिपरीत लोगो ने हमें दुत्कार कर भगाया। एक अखबार का नाम जुरा था हमारे साथ हम चेक बुक भी साथ में लेकर चल रहें थें । फ़िर भी लोग हमें हिकारत से देख रहें थे। बड़े - बड़े शो रूम से जब दस बार कहने पर १० / का नोट निकल रहा था तो हमें बड़ा बुरा लग रहा था ।


पर बाद में कुछ ऐसे उदाहरन भी मिले जब यकीं हुआ कि नही ऐसे लोग भी हैं जो असहायों की मदद करना जानतें हैं। सड़क के किनारे चाय बेचने वाली एक ७५-८० साल कि अम्मा ने हमें बुला कर पैसे दिये। हम उनके आभारी हुआ बिना नही रह सकें .
लोगों में आ रही संवेदनहीनता का क्या किया जे नही मालूम .पर लोग पहल ख़ुद से नही करतें सोचतें हैं कोई और करेगा या कि में पहल्रे क्यों ? और लोग करें। अपनी ज़िम्मेदारी से बचने की आदत कब जायेगी

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

आज का मानव






शब्दहीन , संज्ञाहीन

और
संवेदनहीन
किसी को मरते देख
अपरिवर्तित रहती भावनाएं
किसी को दुखी देख

उर से खुशियाँ बरसती हैं
कोई रोये तो
अधरों पर मुस्कान तैरती हैं
कोई मदद को पुकारे
तो कान दे नही पाते
कहीं थोडी प्रशंसा मिली
तो पाँव ज़मीन छोड़ देते हैं
कोई चार पैसे दे दे
बस उसके तलुए सहलाते हैं
कभी कर्तव्य की बात हो
उन्हें तारे दिख जाते हैं
रिश्ते नाते के मामले में
बस रुपयों से मेल बढाते हैं
भगनी -दुहिता माता
सारे सम्बन्ध एक धागे में
पिरो दिए जाते हैं
नारी को बस नारी बनाते हैं
इस मानव का कभी
पुराने मानव से
मेल कराते हैं


तो छत्तीस का आकडा पातें हैं