रविवार, 20 जुलाई 2008

रिश्ता

1
एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में

और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही

रिश्तों की भीड़ में
अकेला खड़ा में
ढूंढ़ रहा उसे

जो सच में
रिश्ता हो


रिश्तों की दुनिया से
चुराया मैंने
एक प्यारा सा रिश्ता

फूलने - फलने लगा यह
मेरे भीतर और

साथ - साथ
फुला -फला मैं भी
चढ़ता गया
उत्कर्ष की सीढियां
पर , जब ऊपर पहुँचा
जाने कब से
मेरे रिश्ते की बेल
सूखी मुरझाई
पैरों तले कुचली थी