शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

आज का मानव






शब्दहीन , संज्ञाहीन

और
संवेदनहीन
किसी को मरते देख
अपरिवर्तित रहती भावनाएं
किसी को दुखी देख

उर से खुशियाँ बरसती हैं
कोई रोये तो
अधरों पर मुस्कान तैरती हैं
कोई मदद को पुकारे
तो कान दे नही पाते
कहीं थोडी प्रशंसा मिली
तो पाँव ज़मीन छोड़ देते हैं
कोई चार पैसे दे दे
बस उसके तलुए सहलाते हैं
कभी कर्तव्य की बात हो
उन्हें तारे दिख जाते हैं
रिश्ते नाते के मामले में
बस रुपयों से मेल बढाते हैं
भगनी -दुहिता माता
सारे सम्बन्ध एक धागे में
पिरो दिए जाते हैं
नारी को बस नारी बनाते हैं
इस मानव का कभी
पुराने मानव से
मेल कराते हैं


तो छत्तीस का आकडा पातें हैं





5 टिप्‍पणियां:

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

शब्दहीन , संज्ञाहीन बहुत ही सटीक व्याख्या !
पहले जैसी ही उत्कृष्ट रचना पर आपको बधाई !

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

aapka kathan adbhut evm saamyik hai...
Badhai..........

Vinay ने कहा…

shabdon par pakaR bahut achchhii hai, badhaaii...

vipinkizindagi ने कहा…

bahut sahi....

admin ने कहा…

आपकी कविता में जीवन का सत्य साफ झलकता है।
-जाकिर अली रजनीश