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एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में
और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही
२
रिश्तों की भीड़ में
अकेला खड़ा में
ढूंढ़ रहा उसे
जो सच में
रिश्ता हो
३
रिश्तों की दुनिया से
चुराया मैंने
एक प्यारा सा रिश्ता
फूलने - फलने लगा यह
मेरे भीतर और
साथ - साथ
फुला -फला मैं भी
चढ़ता गया
उत्कर्ष की सीढियां
पर , जब ऊपर पहुँचा
जाने कब से
मेरे रिश्ते की बेल
सूखी मुरझाई
पैरों तले कुचली थी
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9 टिप्पणियां:
hello shaliji kaafi saccha likti hai aap aage bhi aisa hi likte rahe tho badia hai blog ke liye badai
shelley ji swagat hai apka bloggers ki nduniya mein sundar kavita ke liye badhai isi tarha likhte rahiye
शैली जी
सबसे पहले तो मेरे ब्लॉग पर आने और पसंद करने का शुक्रिया.समोसे पसंद आए समझो उनको बनाना सफल हुआ.
आज आप के ब्लॉग पर आप की रचनाएँ पढीं. आप की तीनो रचनाएँ बहुत सुंदर हैं...संवेदनाओं को अन्दर तक छूती हुई...शब्द और भाव का अद्भुत मिश्रण प्रस्तुत किया है आपने. आशा है की भविष्य में भी आप की रचनाएँ पढने को मिलती रहेंगी.
खुश रहें
नीरज
शैली जी
मेरी कवितायें पढने और कमेन्ट करने के लिए आपका आभारी हूँ.
आपकी ये रचनाएं आज के ज़माने की सच्चाई बयां करती है.
बहुत ही अच्छे तरह से लिखा आपने.
बधाई.
और हाँ नीरज भइया की बात पर गौर कीजियेगा.
शैली जी बहुत ही अच्छी रचना लिखी है आपने बधाई हो
अच्छा ब्लाग है आपका
एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में
और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
rishto par aapki rachana bahut achchhee hai...
रिश्तों पर क्या खूब लिखा है ,एक एक बात में सच्चाई है ,बहुत कड़वी
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