रविवार, 26 अप्रैल 2009

सवारी



इन खाली गाड़ियों में बैठना पसंद करेंगे? तो देर किस बात की जल्दी से सवार हो जाओ

फ़िर हुई शुरूआत




सोच रही थी मेरे इस ब्लॉग को मेरी और मुझे इसकी जरुरत तो है। और इसलिए इसे बरक़रार रखना ही चाहिए । इस सोच के साथ इसकी नई शुरूआत

सोमवार, 24 नवंबर 2008

कवि व्यथा !!!




(१)
देश स्वतंत्र है
कवि आज भी है
परतंत्र
कलम उसकी है बंधी
विवशताओं से घिरा
हो गया है लाचार
कलम के साथ-साथ
जकडा है मन
लिखता है वो
जो लिखवाते हैं
कहता है वो
जो कहलवाते हैं
यहाँ तक कि
सोचता भी वही है
जो लोग चाहते हैं
देख-देख सबकी दुर्दशा
चुप रहता है
ऊपरी ख़ुशी में जीता है
(२)
प्रेयशी के गाल
मुझे नहीं दिखते लाल
उसकी जुल्फें
न बादलों कि झलक देती हैं
न रातों कि
उसके बालों का पानी
याद नहीं दिलाता
मोतियों कि
उसकी कजरारी आँखें
हिरनी सी दिखती नहीं
उसके मुख को,मैंने दी नहीं
चाँद कि उपमा
मैं करता हूँ चेष्टा
पर उसकी वेणी
नागिन की समता
पा नहीं सकती
जब-जब देखता हूँ उसे
दिखती है मानवी ही
क्या मेरा कवि होना व्यर्थ है?
(३)
कवि होना
है एक अभिशाप
इनकी है अलग दुनिया
समाज से कटे
अपने-आप में सिमटे
रहते हैं ये
हर वास्तु को देहते हैं
इतने गौर से
कि थम जाती हैं
उनकी साँसें
लोग कहते हैं
ये दूर-दूर रहते हैं
और
ये कहते हैं
लोग पास नहीं आते
खैर, इसी मुगालते में
दोनों एक-दुसरे से कट जाते हैं!

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

सपना देखा








बच्चो के लिए लिखी यह कहानी मैंने बचपन में लिखी थी .यह कहानी मेरेलिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योकि यह मेरी पहली रचना है जो किसी पत्रिका में प्रकाशित हुई हो।


रविवार, 5 अक्तूबर 2008

गाँधी की बातें






२ अक्तूबर यानी गांधीजी का जन्मदिन आया और खामोशी से चला गया। न, न खामोशी शब्द पर आपत्ति की आवशयकता नही है क्योकि सरकारी छुट्टी , धरना, प्रदर्शन से खामोशी नही टूटती। इस खामोशी का मतलब है एक बार फ़िर गाँधी जी नकारे गए। उनके जन्मदिन पर कितने लोगों ने उनसे कुछ सिखा , कितनो ने उनके मूल्यों को अपनाया या अपनाने की ठानी। जवाब नकारात्मक है न। इस लिए मैंने कहा की सब कुछ खामोशी से हुआ। क्योकि परिस्थितिया बदल चुकी हैं ,और चुनौतियाँ भी , पर ये पहले से ज्यादा ख़राब हो गईं है। पहले( गाँधी जी के समय में ) हमारे पास मुख्यरूप से एक ही चुनौती थी, स्वाधीन कराना । बाकि यह विशवास था कि आजाद भारत में जब अपने लोगों का शासन होगा तो सारी बाधा पर तो विजय पा ही लेंगें ( ऐसा नही हुआ उसके कारण अलग थे ) आज कि स्थिति ये है कि हर क्षेत्र में अलग प्रकार कि चुनौतियाँ हैं । जब भी दिक्कत बढती है तो गाँधी याद आतें हैं , लगता है काश! उनके पदचिह्नों पर चले होते तो ऐसी मुश्किलें नही आती। यहाँ तक तो ठीक है पर जब देखतें हैं कि आज के युवा " मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी " जैसे जुमले उछालते हैं तो उनकी बुद्धि पर पर तरस आता है। आज भी ऐसे महानुभाव मिलते हैं जो ये कहतें हैं कि गाँधी के कारण ही तो देश विभाजित हुआ, या कहने वाले भी कम नही हैं कि गाँधी जी ने मुस्लिमो और हरिजनों को जरुरत से ज्यादा प्रश्रय दिया है। ऐसा कहने वाले ये भूल जातें है कि वे ख़ुद कितनी गन्दी मानसिकता के साथ रहतें हैं और उनका ये कथन हमारे देश के मूल्यों और सिद्धांतों के विपरीत हैं अस्तु अभी गांधीजी के जीवन की कुछ झलकियाँ -


































इनको देख कर अहसास तो बहुत कुछ हो सकता है पर तभी जब कोशिश की जाए । नई पीढी से यह उम्मीद है की एक बार गाँधी दर्शन को समझने कि कोशिश तो करे उसे भी मुन्ना भाई कि तरह देर से ही सही पर फायदा होगा , इसकी गारंटी है! तो आजमा कर देखतें हैं ...