शनिवार, 25 अक्टूबर 2008
शनिवार, 18 अक्टूबर 2008
रविवार, 5 अक्टूबर 2008
गाँधी की बातें
२ अक्तूबर यानी गांधीजी का जन्मदिन आया और खामोशी से चला गया। न, न खामोशी शब्द पर आपत्ति की आवशयकता नही है क्योकि सरकारी छुट्टी , धरना, प्रदर्शन से खामोशी नही टूटती। इस खामोशी का मतलब है एक बार फ़िर गाँधी जी नकारे गए। उनके जन्मदिन पर कितने लोगों ने उनसे कुछ सिखा , कितनो ने उनके मूल्यों को अपनाया या अपनाने की ठानी। जवाब नकारात्मक है न। इस लिए मैंने कहा की सब कुछ खामोशी से हुआ। क्योकि परिस्थितिया बदल चुकी हैं ,और चुनौतियाँ भी , पर ये पहले से ज्यादा ख़राब हो गईं है। पहले( गाँधी जी के समय में ) हमारे पास मुख्यरूप से एक ही चुनौती थी, स्वाधीन कराना । बाकि यह विशवास था कि आजाद भारत में जब अपने लोगों का शासन होगा तो सारी बाधा पर तो विजय पा ही लेंगें ( ऐसा नही हुआ उसके कारण अलग थे ) आज कि स्थिति ये है कि हर क्षेत्र में अलग प्रकार कि चुनौतियाँ हैं । जब भी दिक्कत बढती है तो गाँधी याद आतें हैं , लगता है काश! उनके पदचिह्नों पर चले होते तो ऐसी मुश्किलें नही आती। यहाँ तक तो ठीक है पर जब देखतें हैं कि आज के युवा " मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी " जैसे जुमले उछालते हैं तो उनकी बुद्धि पर पर तरस आता है। आज भी ऐसे महानुभाव मिलते हैं जो ये कहतें हैं कि गाँधी के कारण ही तो देश विभाजित हुआ, या कहने वाले भी कम नही हैं कि गाँधी जी ने मुस्लिमो और हरिजनों को जरुरत से ज्यादा प्रश्रय दिया है। ऐसा कहने वाले ये भूल जातें है कि वे ख़ुद कितनी गन्दी मानसिकता के साथ रहतें हैं और उनका ये कथन हमारे देश के मूल्यों और सिद्धांतों के विपरीत हैं अस्तु अभी गांधीजी के जीवन की कुछ झलकियाँ -
इनको देख कर अहसास तो बहुत कुछ हो सकता है पर तभी जब कोशिश की जाए । नई पीढी से यह उम्मीद है की एक बार गाँधी दर्शन को समझने कि कोशिश तो करे उसे भी मुन्ना भाई कि तरह देर से ही सही पर फायदा होगा , इसकी गारंटी है! तो आजमा कर देखतें हैं ...
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